चाह छांह की
दिनांक 19/6/19
छांह
गुजर रहे है उम्र के
उस पड़ाव से
जहाँ न धूप है न छांह
अलसाई सी है जिन्दगी
तलाश है एक ठोर की
काटते जा रहे है पेड़ हम
करते है चाह छांह की
आसमान से जब
बरसती है आग
कांक्रीट की इमारतों में
मांगते हैं हम पनह
पर्यावरण से गर करते रहे
खिलवाड़ यूँ ही
इन्साफ नहीं करेगी
ये धरती
हवा पानी को
तरस जाएंगे
कब्र बन जाएंगी
ये अटारिया
अब भी चेत जा
ऐ इन्सान
मत खेल प्रकृति से
छांह छांह की चाह में
राह राह तू भटकेगा
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल