चाहत
जिसे प्रेम माना मिले चाहती है।
नहीं अब विकलता चले चाहती है।।
कहे अब नहीं हो कहीं भी अँधेरा ।
मिले अब उजाला गले चाहती है ।।
सभी मन बहे अब नवल प्रेम धारा।
धरा में समर्पण फले चाहती है।।
करें अब न कोई दुराचार मानव।
नहीं कुछ गलत हो खले चाहती है।।
बहें अब नदी सब सहज ही विचरती।
नहीं अब जगत यह छले चाहती है।।
भला हम करेंगें सदा ही सभी का।
सदा भाव दिल में पले चाहती है।।
गहें हम हमेशा कहे नेक जिसको।
नहीं भाव मन से टले चाहती है ।।
सभी का भला हो करें काम ऐसा।
मिले राह कंटक भले चाहती है ।।
डाॅ सरला सिंह “स्निग्धा”
दिल्ली