चारागर मैंने माना कि तू चारासाज़ी को तैय्यार है।
ग़ज़ल।
चारागर मैंने माना कि तू चारासाज़ी को तैय्यार है
जिसका कोई मदावा नहीं इश्क़ का ऐसा आज़ार है
तेरे आने से गुल खिल गए रंगो-ख़ुश्बू मुझे मिल गए
तेरे दम से ही मेरे सनम ये चमन दिल का गुलज़ार है
दुश्मनों से शिकायत नहीं दुश्मनों का गिला क्या करूँ
दोस्तों की इनायत है ये मेरा रस्ता जो पुरख़ार है
तुझसे बिछङा तो समझा मैं ये इससे पहले कहाँ थी ख़बर
ज़िन्दगी का सफ़र बिन तेरे कितना मुश्किल है दुश्वार है
तीरगी से ग़रज़ क्या उसे हामी-ए-तीरगी वो नहीं
रौशनी वो तो है बाँटता रौशनी का वो मीनार है
तूने नज़रें अगर फेर लीं कैसे मंज़िल मिलेगी मुझे
मेरे रहबर तिरी रहबरी हर क़दम मुझको दरकार है
मुफ़्लिसी में भी उसने क़मर अपना ईमान बेचा नहीं
देखते ही हिकारत से क्यों आदमी वो तो ख़ुद्दार है
जावेद क़मर फ़िरोज़ाबादी