चाय व सोमरस की महिमा
कोई लेबल ब्राण्ड हो, सभी ज़ायक़ेदार
चायपान या सोमरस, ज़िन्दगी रसेदार
ये दोहा दो युगों की याद दिलाता है। पहला सतयुग—जब देवता सोमरस का पान करते थे। जो आम व्यक्ति के लिए उपलब्ध नहीं था। दूसरा वर्तमान घोर कलयुग—अब आम आदमी चायपान करता है। जो देवताओं के नसीब में नहीं थी। इसका स्वाद और नशा भी किसी शराब से कम नहीं। यदि सुबह उठने पर चाय न मिले तो कई लोग बिस्तर पर सोने का नाटक किये पड़े रहते हैं। कई ऐसे भी प्राणी हैं, जो चार-पांच गिलास भर के चाय न पी लें तो उनको दीर्घशंका निवारण का उपाय नहीं सूझता! ख़ैर, बच्चों से लेकर बड़े-बूढ़ेजनों तक को चाय की मोहमाया ने ऐसे जकड़ रखा है कि बिना पिए किसी को भी तसल्ली नहीं होती।
कुछ चाय भक्तों ने चाय को कलयुग का अमृत कहा है। तो कुछ इस अमृत से ईर्ष्या करने वालों दुष्टों ने इसे धीमा ज़हर कहा है। अंग्रेजी में बोलें तो सिलो पॉयज़न। अब कहने वालों का मुँह कौन पकड़ सकता है? कहने वाले तो दारू को सोमरस की संज्ञा देने लगे हैं! वो सोमरस जिसे सतयुग में अमृत पदार्थ माना जाता था। जो अनेक प्रकार की जड़ी-बूटियों से तैयार होता था। जिसे पीकर अनेक देवताओं के देवत्व प्राप्त हुआ। आज की कलयुगी परिभाषा में जिसे सोमरस कहा जाता है वो निगोड़ी दारू है। जो सरकारी शराब की दुकानों से लेकर, देशी दारू की दुकानों तक कई रूप में, कई स्वादों में मिल रही है। अब तो कुछ लोग-बाग इन दारू की दुकानों को देशी मन्दिर की भी संज्ञा देते हैं। शायद इस वजह से कि यहाँ कलयुगी सोमरस की प्राप्ति होती है। जो थैली से लेकर पव्वा, अद्धा और बोतल की शक्ल में भक्तों को उपलब्ध है। इस दारू का सेवन करने के उपरान्त कोई खुद को महाराज समझने लगता है। कोई खुद को भगवान समझने लगता है। जो पत्नी से डरते हैं, पीने के बाद पत्नी को डराते हैं। ये बात अलग है कि सुबह शराब का नशा टूटने पर उन्हें अपने हाथ-पाँव टूटने का अहसास होने लगता है।
एक दिन दफ़्तर के मित्र मुकेश जी चाय का घूँट पीने के पश्चात बोले, “दिन में मात्र चार से पाँच बार या फिर उससे भी अत्यधिक चाय पी लेने से आपको सीने में जलन की समस्या से दो-चार होना पड़ सकता है।”
“मुकेश सर, सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यों है? इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यों है? तो क्या ये गीत शहरयार ने आठ-दस कप चाय पीने के बाद रचा था।” मैंने चाय की चुस्की ली।
“मज़ाक़ मत करो। आई एम सीरियस!” मुकेश जी भड़क कर बोले।
“ओके सर! कृपया बताएँ …. कैसे सीने में जलन होगी, श्रीमान?” मैंने पुनः चाय की चुस्की लेते हुए पूछा।
“कविराज, अत्यधिक चाय सेवन से आपको ‘एसिड रिफ्लक्स’ की परेशानी हो सकती है। जो आंत में अम्ल के उत्पादन को बढ़ा देती है। यही सीने में जलन का प्रमुख कारण है।” कहकर मुकेश जी ने चाय के कप से अन्तिम चुस्की ली और ख़ाली कप मेज पर रख दिया।
“श्रीमान जी, आज का सातवाँ कप ख़ाली करने के पश्चात् आप हमें यह प्रवचन दे रहे हैं।” मैंने हैरानी जताई।
“मुझ पर चाय का असर नहीं होता!” कहकर मुकेश जी ने सिगरेट सुलगा ली।
“आपकी बात सुनकर मुझे शोले के गब्बर अमजद ख़ान का एक साक्षात्कार याद आ रहा है। जिसमें उन्होंने कहा था… मैं एक दिन में साठ से सत्तर गिलास चाय पी जाता हूँ। चाय हर व्यक्ति पे अलग असर डालती है। मोटे को और मोटा बनाती है तथा पतले को और पतला कर देती है। मेरी मोटाई देखकर आप अंदाजा लगा सकते हैं कि मैं क्यों एक दिन में चाय के 70 गिलास पीने के बाद, 70 एम एम के पर्दे पे फिट होता हूँ? कुर्सी पे नहीं बैठ पाता, क्यों तख़्त पर बैठकर इंटरव्यू दे रहा हूँ?” मैंने बड़ी शिष्टता से कहा।
“गब्बर की बात में कुछ सच्चाई हो सकती है लेकिन चाय पीने का असर आपकी आंतों पर भी पड़ता है। चाय पीने से एक तो आंतें खराब होती हैं, दूसरे खाना पचाने में भी दिक्कत होती है।” इस बीच कैन्टीन वाले छोटू से चाय का नया गिलास मंगवाने के पश्चात मुकेश जी ने चाय पर अगला बम फोड़ा, “चाय में मौजूद टैनिन शरीर में पहुंच कर आयरन को अवशोषित करने की क्षमता को कम कर देता है। विभिन्न शोधों के मुताबिक चाय आयरन को अवशोषित करने की क्षमता को 60 प्रतिशत तक कम कर सकती है। इस तरह चाय के अधिक सेवन से आपकी नींद भी उड़ जाती है। नींद पूरी न होने के कारण कई समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।”
“महाराज, प्रवचन बंद करो। ये चायकाल का समय है न कि लंच टाइम।” टीम लीडर राधाबल्लभ ने दीवार घड़ी की ओर इशारा करते हुए कहा, “चाय पुराण का बखान फिर कभी कर लेना। आज प्रिण्टर फ़ाइल भेजनी है। देर हुई तो रातभर बैठकर दफ़्तर में चाय पीते रहना।”
सोमरस के बनाने की भी अपनी-अपनी अदा है। यूरोपीय और अमेरिकी महाद्वीपों में मिलने वाली शराब सबसे अच्छी यानि उम्दा मानी जाती है। सोमरस के कुछ प्रचलित नाम क्रमशः इस प्रकार हैं:— रम, विस्की, ब्रांडी, जिन, वाइन, बीयर, महुआ, हंड़िया, चूलईया आदि। वैसे सभी रिश्ते में एक-दूसरे के भाई-बहन हैं क्योंकि सबके डी.एन.ए. में प्रचुर मात्रा में एलकोहल (कुछ अल्कोहल भी बोलते हैं) होता है। हाँ, इनमें एलकोहल की मात्रा और नशा लाने कि अपेक्षित क्षमता अलग-अलग दीख पड़ती है। अंग्रेज़ी हो या ठेठ देशी दारू आम आदमी ने अपनी दृष्टि में सभी को एक ही तराजू में तोलकर ‘शराब’ की संज्ञा दी है। एक नेता ने तो सोमरस की प्रशंसा में परम्परागत दोहा सुना दिया था संसद भवन में:—
व्हिस्की से विष्णू बने, रम से राजाराम
ब्राण्डी से ब्रह्मा बने, ठर्रे से हनुमान
जब विरोध दर्ज़ हुआ तो उन्होंने अपने शब्द वापिस लिए। लेकिन दोहा तो उन्होंने रचा नहीं था। ये तो किसी अनाम कवि का कार्य रहा होगा। जो निहायती पियक्क्ड़ और घोर दर्जे का नास्तिक रहा होगा। उसे मुम्बइया भाषा में बेवड़ा या येड़ा भी कह सकते हैं। हम तो ईश्वर की सत्ता स्वीकार करने वाले तुच्छ प्राणी हैं। हमें तो दो जून की रोटी भी मयस्सर नहीं है। रोज़-रोज़ बोतल कहाँ से मिलेगी? इसलिए हमने साहिर लुध्यानवी के एक गीत पर शराब की महिमा का गुणगान कर डाला। तर्ज़ भी वही फ़िल्म वाली है, गुनगुनाइए आपको याद आ जायेगा। लीजिये गाइये मेरे साथ:—
मिलती नसीबवालों को, बोतल कभी-कभी
बरसात में पकौड़े तल, पागल कभी-कभी
नाचे है सिर पे चढ़के, ये देशी, ये लाल परी
बन जाऊँ मैं तो ताश का जोकर कभी-कभी
फिर गिर न जाऊँ मैं कहीं नाले या रोड़ पर
लगता गली के कुत्तों को मैं लोफ़र कभी-कभी
दो पैसे भी न जब रहें पीने को जेब में
बन जाऊँ तेरे बाप का मैं नौकर कभी-कभी
जब सोमरस के नशे ने इस महान गीत की रचना करवा डाली, तो मैं साहिर साहब की क़ब्र पर उनको ये गीत सुनाने गया! तभी चमत्कार हुआ और क्या देखता हूँ? यकायक तेज़ बारिश होने लगी है। मेरा यक़ीन पुख़्ता हो गया कि साहिर साहब की आत्मा ने खुश होकर ख़ुशी के आँसू छलकाए हैं। सच है, अगर शराबी-कबाबी दोस्त बन जाये तो ताउम्र साथ नहीं छोड़ता। वफ़ादारी निभाता है किसी कुत्ते की तरह।
पहाड़ी लोगों में पीने पाने का चलन कुछ अधिक है। इसके लिए वो ठण्ड को दोष देते हैं। यदि पीने से ठण्ड कम लगे तो हर्ज़ ही क्या है? दिक्क्त तो तब होती है जब लोग पीने के बाद अग्रेज़ी में ज्ञान बाँटने लगते है। हमारे यहाँ जो आदमी ठीक से पहाड़ी या हिन्दी भी नहीं बोल पाता वो पीने के बाद अंग्रेज़ हो जाता है। ऐसा अँगरेज़ और अंग्रेज़ी जिसे पढ़-सुनकर मैकाले की आत्मा भी क़ब्र में तड़प और सिसक उठे। वीरू भाई जब पी लेते हैं तो शुरू हो जाते है, “कम ऑन, यू जनिंग मी? आय एम बहुत डेंजरस परसन!” आगे भी हिंदी अंग्रेजी के शब्दों को मिलकर बड़ी लाजवाब अंग्रेजी बोलते हैं। जैसे धर्म पाजी ने शोले फ़िल्म में पानी की टैंकी के ऊपर चढ़कर बोली थी, दारू पीने के बाद, “बुढ़िया गोइंग जेल। इन जेल बुढ़िया चक्की पीसिंग पीसिंग एंड पीसिंग।”
फिर मुझे नमक हलाल के अमिताभ याद आ जाते हैं। जो रंजीत के सामने अपनी अंग्रेजी का लाजवाब प्रदर्शन बड़ी शिष्टता के साथ करते हैं। “तुम अंग्रेजी जानते हो?” बस रंजीत का इतना ही कहना था कि देहाती अमिताभ एक साँस में शुरू हो जाते हैं, “आई कैन टाक इंगलिश! आई केन वाक इंगलिश! बिकॉज इंगलिश इज फन्नी लैंग्वेज।” इसके बाद वो भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच की लम्बी-चौड़ी कमेंटरी सुना देते हैं। और रंजीत झल्ला कर कहते हैं कि, “बंद करो।” तो अमिताभ बड़े गर्व से कहते हैं कि, “हमारे अंग्रेजी सामान्य ज्ञान पर कोई विशेष टीका-टिप्पणी!”
ऐसे ही जब वीरू दादा अंग्रेजी बोलना शुरू करते हैं तो धीरे-धीरे लोगबाग वहां से खिसकना शुरू कर देते हैं। कोई पेशाब के बहाने! कोई लैट्रिन जाने के बहाने। यकायक वीरू भाई हिन्दी गाने को गढ़वाली में गाने लगते हैं। जिससे पता चलता है वो कितने पिए हुए हैं।
जैसे:—
जीना यहाँ, मरना यहाँ
इसके सिवा, जाना कहाँ
जी चाहे जब हमको आवाज़ दो
हम हैं वहीँ, हम थे जहाँ
इसका गढ़वाली संस्करण :—
जीणु यखी, मरणु यखी
येक सिवा, जाणु कखी
जी चाय जब मिथा आवाज दया
मी छुन वखी, मी छाय जखी
इसी तरह से नेगी जी के गढ़वाली गानों को हिन्दी में गुनगुनाने लगते हैं।
गढ़वाली रंग:—
उच्चा-निसा डांडयूँ मा….. टेड़ा-मेडा बाटयूं मा….
चली बे मोटरा चली…. सरारा पों पों चली बे मोटर चली
हिंदी ढंग:—
ऊँचे नीचे पहाड़ों में….. टेड़े-मेडे रास्तों में…..
चली रे मोटर चली …. सरारा पों पों मेरी मोटर चली
इतना तो ठीक है लेकिन हद तब हो जाती है जब वीरू भाई “मोटर चली” गाते वक़्त सामने बैठे व्यक्ति का नाडा खींच देते हैं।लोगबाग खिसकना शुरू कर देते हैं। तब वीरू महाराज कहने लगते हैं, “अरे कहाँ चले अभी तो गीत-संगीत की महफिल चालू हुई है। अभी तो इन गीतों का अंग्रेजी संस्करण भी सुनाऊँगा!”
वैसे वीरू के साथ में दारू पीने वालों को कुछ बातें अक्सर सुननी पड़ती हैं। उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं।
1.) “मैं तुझे दिल से भाई मानता हूँ, बाय गॉड! क़सम से तू मेरा भाई है। मैं दिल से तेरी बड़ी इज़्ज़त करता हूँ दोस्त! तू मेरा दोस्त नहीं, भाई है। मैं तुझे दिल से भाई मानता हूँ, बाय गॉड! क़सम से….” ऐसा यदि एक बार कहा जाये तो ठीक है लेकिन कई बार दोहराया जाये तो सुनने वाला पागल हो जाता है। जैसे सत्ते पे सत्ता मूवी में अमिताभ अमजद खान की बार बार पप्पी लेता था। ये कहकर कि अरे ये बात तुम भी जानते हो। जबकि अमिताभ एक ही क़िस्सा अमजद भाईजान को बार-बार सुना रहे होते थे।
2.) “तू बैठ आज गाड़ी मैं चलाऊँगा।” रास्ते में वीरू के साथ दारू पीने वाला यदि कोई अनजान व्यक्ति है तो ये सम्वाद उसे कई बार सुनने पड़ते हैं। तो अनजान व्यक्ति पूछता है, “भाई कभी गाड़ी का हैण्डल भी पकड़ा है?”
“क्या हुआ जो हैण्डल नहीं पकड़ा?” तो वीरू तपाक से बोलता है, “लेकिन गाड़ी में सबसे बढ़िया चलाता हूँ। तू बैठ तो सही, आज गाड़ी मैं चलाऊँगा।” इतना सुनकर अजनबी शख़्स वहां से भाग खड़ा होता है।
3.) “एक छोटा सा पैग और हो जाये तो मज़ा आ जाये! आज तो कुछ चढ़ ही नहीं रही। साली घटिया दारू है।” ये कहते-कहते वीरू ज़बरदस्ती साथ पीने वाले के गिलास में दारू उड़ेल देता है। यदि सामने वाला हाथ न पकडे तो वीरू उसका गिलास पूरा भरकर ही चैन लेता है। पुनः गिलास ख़ाली होने पर वीरू का यही संवाद क्रमानुसार चलता रहता है।
4.) “ये मत समझ की मैं पीकर बोल रहा हूँ। मैं तेरा दर्द समझता हूँ मेरे भाई। जब मैं किशोर अवस्था में था तो मेरी एक तरफ़ा आशिक़ी पड़ोस में रहने वाली एक लड़की से हो गई थी। उन दिनों जैकी की हीरो फ़िल्म आई हुई थी और वो मीनाक्षी लगती थी मुझे। ‘तू मेरा जानू है! तू मेरा दिलबर है।’ ये गाना सुनकर लगता था कि वो पंजाबन लड़की मेरे लिए ही गाना गा रही है।” भावुक हो जाने पर वीरू भाई इमोशनल कार्ड खेलने लगता है और अपनी बचपन से बुढ़ापे तक की सब असफ़ल प्रेम कहानियों को दोहराने लगता है। जिसे अनेक बार वो अपने साथ पीने वालों को पहले ही सुना चुका है। लोगबाग ये कहानियाँ सुनकर पक गए हैं। वीरू की ये कहानियाँ हैं कि ख़त्म ही नहीं होती! बदस्तूर ज़ारी हैं। झकमार कर लोग अपना घंटा-दो घंटा ख़राब कर देते हैं। फिर कोई और क़िस्सा सुनाने लगता, “दूसरी गर्ल फ्रेण्ड तो लीना चन्दावर्कर लगती थी।” और धर्मेन्द्र वाली पुरानी ‘रखवाला’ फ़िल्म के गाने वीरू भाई सुनाने लगता था। “तू इतना समझ ले सनम, कोई रखवाला हूँ मैं तेरा…..”; “मेरे दिल ने जो माँगा मिल गया ….” ये गाना जब भी सुना लगा वो मेरे लिए गा रही है और धर्मेंद्र की जगह मैं हूँ।
5.) “तू बोल तुझे क्या चाहिए? तू हुक़्म तो कर काका तेरे लिये जान भी हाज़िर है। बोल तो अभी कूद जाऊँ छत से।” कहते हुए वीरू अपनी जगह से उठने लगता तो सामने वाला उसे ये सोचकर बैठा देता कि कहीं सचमुच न कूद जाये वीरू भाई?
6.) “बहुत हुआ, कल से दारू बिलकुल बंद। आज आख़िरी पैग है, इसे ख़ाली कर लेने दो।” अगर इतना सब कुछ झेलने के बाद भी कोई बचता था तो वीरू उसे नींद की आगोश में जाने से पहले कहता। और ज़ोर-ज़ोर से खर्राटे मारने लगता।
एक बार एक दूसरे मुहल्ले का अनजान आदमी गली के नुक्क्ड़ पर पनवाड़ी की दुकान के सामने सिगरेट सुलगाते हुए वीरू भाई को दारू, बीड़ी, सिगरेट, पान, तम्बाखू आदि का सेवन करने के फ़ायदे गिनवा रहा था। उसे पता नहीं था कि वीरू भाई कितना घातक आदमी है। उनमें से दो फ़ायदे का उल्लेख मैं यहाँ कर रहा हूँ। वो खांसता हुआ बोला, “सर जी, पहला फायदा ये है कि दिन हो या रात आपके घर में चोर नहीं घुसता है!”
“क्यों?” वीरू ने सिगरेट का धुआँ उसके मुँह पर उड़ाते हुए पूछा।
“क्योंकि रात हो या दिन आप खांसते ही रहते हैं। चोर समझता है यहाँ तो लोग जागता और खांसता ही रहता है।” वो आदमी धुएँ के प्रभाव से बुरी तरह खांसते हुए बोला।
“और दूसरा फ़ायदा?” वीरू ने सिगरेट का एक ओर लम्बा कश खिंचा।
“बुढ़ापे में बहू के ताने नहीं सुनोगे और वृद्धावस्था जनित रोगों से भी बचे रहोगे!” खांसी पर नियंत्रण करने के उपरान्त वह कुछ संयत होकर बोला, गुटखा खाने से पीले हुए दाँत चमकाते हुए।
“कैसे?” वीरू ने बची हुई सिगरेट का आख़िरी कश लिया।
“क्योंकि किडनी, लीवर, हार्ट सब जवाब दे देगा और तुम जवानी में ही चल बसोगे!” वो पीले दाँत फाड़ता हुआ ज़ोरों से हँसता हुआ बोला, “न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी!” अनजान शख़्स की इस सम्वाद अदायगी के बीच वीरू ने सिगरेट को ज़मीन पर फेंका और बड़ी बेदर्दी से अपनी चप्पल के नीचे मसल दिया।
“कहाँ थे आप गुरुदेव? आपके चरण कहाँ है? आप ज़रा मेरे साथ कक्ष में चलिए!” अपने मनोभावों को छिपाते हुए वीरू ने बड़ी विन्रमता से अपने चेहरे पर मनमोहक मुस्कान लाते कहा।
“क्या पारितोषिक देंगे?”
“चलिए तो महाराज!” इस तरह गली के नुक्क्ड़ से कक्ष तक वीरू भाई उसे धकेलते हुए ले गया और बंद दरवाज़े के पीछे से घंटे भर तक पड़ोसियों को उस अनजान आदमी के रोने, चीखने-चिल्लाने का स्वर सुनाई देता रहा।
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