चांद की थाल
बचपन से मैंने हर रोज़, उस चाँद को देखा है,
है चमकता और दाग वाला, पर कितना अनोखा है,
हर रात माँ चाँद दिखा कर, खाना हमें खिलाती थी,
और प्यारी सी लोरी गाकर,थपकी संग सुलाती थी,
देखता था कोई और भी, रोज़ अकेले उस चाँद को,
ना घर था कोई, ना थी माँ, जगता पूरी रात वो,
दिखती उसको थाल चाँद में, कितने ही पकवान होते,
एक नही दो तीन सब्जी और चावल भी साथ होते,
पनीर की सब्जी संग छोले होते, बूंदी का वो रायता होता,
माँ सेकती गरम पूड़ियाँ, मैं उन्हें फोड़कर खाता होता,
पर हूँ अकेला और गरीब, क्या खाना खा पाऊंगा,
रोज़ रात यूं सपने पकाकर, पेट भर सो जाऊंगा,
ना माँ आएगी मुझको सुलाने, तू भी मामा अब दूर से देख,
उठ जाऊंगा कल फिर सुबह, सपने फेंक, खाली पेट ।
©ऋषि सिंह “गूंज”