चांँद एक दीपक
हे ! चांँद क्यों करता है,
तू इतनी यातनाऐं ।
कभी घटता है,
कभी बढ़ता है तू ।
सहसा पूर्ण रूप में आता,
कभी विलुप्त हो खो जाता ।
सदैव सूर्य के समान एक-सा,
क्यों नहीं चमकता रहता ।
पूर्णिमा को प्रकाशित करता,
अमावस्या को एहसास कराता ।
रात धरा का दीपक बन जाता ,
लौ की भांँति जलता-बुझता ।
संध्या आते तू जाग उठता ,
प्रकाश बिखेर कर मार्ग दिखाता ।
क्या ज्ञान की मूरत है तू ,
या प्रकाश का मार्ग दाता ।
दीपक की भांँति प्रकाशित होता,
या घी की कमी से बुझ जाता ।
चांँद एक दीपक हो तुम,
इस धरा का सहचर हो तुम।
?
**बुद्ध प्रकाश ;
**मौदहा ,हमीरपुर ।