चाँद
चाँद जैसे निर्जर वृक्ष का,
एकलौता फल।
जो ऊगा है सांझ की बेला में..
रात की शोभा बढ़ाने,
की कम हो अंधेरा…
ताकि न करना पड़े,
जुगनुओं को मशक्कत..
राह दिखाने के लिए,
बुधिया काका को;
जिन्हें जाना है खेतों पर,
निगरानी करने फसलों की..
जो उनके परिवार की जमा पूंजी,
उसे बचाने को..
रात भर चाँद जैसे,
जगने को…
रात भर खेतों की मुंडेरों पर,
ताकने को चांद और;
आहट होने पर,
पीटने को थाली,
की जानवर चर न जाएं,
दिन रात की मेहनत,
चाँद चुपचाप..
निर्झर पेड़ से उठ,
रात भर चहल कदमी करता है,
दीना काकी की तरह ;
जो बार बार उठ,
निगरानी करती मवेशियों की..
उन्हें चारा पानी देती,
गुज़ार देती है रात,
जैसे नींद से बैर हो उसे;
ऐसे ही गाँव नींद में बोझल..
शांत, अलसाया सा,
लगा रहता है दिन रात,
दिल की तरह चुपचाप,
धड़कता हुआ..
जिससे शहर की नब्ज चलती है,
जिससे सुबह की चाय में दूध पकती है..
जिससे रोटी की सोंधी खुशबू,
नाश्ते की प्लेट से उठती है;
और शहर रात भर,
चैन की नींद सोता है…
और सुबह उन्ही गांव के,
गंवारों को कोसता..
अपनी हर ज़रूरत पर,
खुद को दाद देता है..
पर निर्झर पेड़ का वो चांद..
जो गावँ का गहना है,
मुस्कुराता हुआ..
लगा रहता है देने को साथ,
हर रात गावँ के हर,
बाशिंदे का चुपचाप…