चाँद
सबको अच्छा लगता है जब
बड़ी अठखेलियां करता है
ताल में अपनी छवि देख
क्यों इतना इतराता है
ना जाने किसे रिझाता है ?
हर बार सिर्फ एक ही रूप
दिखाता है
ना जाने अपने पीछे की
अंधेरिया में
क्या – क्या दर्द छिपाता है
चमकते जब हो पूर्णिमा में
सब पूजते हैं, पूछते हैं तुम्हें
किसे पड़ी है – क्या होता है
क्या सोता है ? या रोता है ?
गहन अँधेरी – अमावस में
………. अतुल “कृष्ण”