चाँद
कविता
दूर है चाँद हमसे
रूप लगता चाँदी सा
पास गये वो कहते
चमक हीन माटी सा
फिर भी स्वीकार नहीं
कही सुनी कोई बात
हमे दिखाई देती है
चाँदनी की उज्ज्वल रात
कुछ वहक जाते देख
पाना चाहते चाँद को
कुछ तुलना करते हैं
सुंदरता की चाँद से
कुछ के मन में लोभ
चाँद का खजाना पाने
कुछ तो बसना चाहते
चाँद को अपना बनाने
कुछ देखकर कलंकित
भ्रमित हो रहे हैं
चाँद की सुंदरता भूल
सिर्फ दोष देख रहे हैं
सबकी अलग है चाह
धरती मुस्करातीी है
वाह रे मानव मन
तुझे शर्म नहीं आती है
रचा है विधाता ने
मुझे तेरे ही वास्ते
तू विकास के नाम पर
चल रहा उल्टे रास्ते
मानव से देवत्व पाना
लक्ष्य यही रहा है
क्या हो गया है तुझे
चाँद पर फिदा है
अपनी शक्ति और श्रम
धरती पर ही लगा
चाँद होगा कभी नहीं
मानव तेरा सगा
क्यों दानवी माया अपनाता
सृष्टि चक्र नहीं तेरे वश
दूर से ही चमकता चाँद
पास कहाँ है जीवन रस।
राजेश कौरव सुमित्र