“चाँदनी रात”
चाँद है, शब है, उनकी याद है, तनहाई है,
फिर कोई टीस, मेरे दिल की उभर आई है।
चाँदनी रात मेँ मिलने का, था क़रार हुआ,
शुक़्रिया उनका,हसीँ शब को जो दीदार हुआ।
चाँद के सँग-सँग, जैसे आफ़ताब आया,
जवाँ नहीं थे जो, उन पर भी गो शबाब आया।
चाँदनी रात में दमका था,वो शफ़्फ़ाफ़ बदन,
सँगमरमर ने ज्योँ पहना,कोई उजला परहन।
हुस्न शाइस्ता-ओ-तहज़ीब-ओ-अलम है शायद,
इक हसीँ ज़ुल्फ़ आ गई थी गो,बन के चिलमन।
देखकर मुझको ,जो हया सी आ गई उनको,
चाँद भी शर्म से, बादल मेँ छुप गया फिर तो।
कलियाँ हैरान थीँ, ये दूसरा है चाँद किधर,
हम भी दीदार करें, कर देँ कुछ औरोँ को ख़बर।
इतने में चाँद फिर ,बादल से निकल कर आया,
जिसपे मेरा था हक़,उसने भी सब को भरमाया।
फिर से बरसा है नूर ,चाँद का गुलिस्तां पर,
हम भी शादाँ हैं ,अपने चाँद की मलाहत पर।
हो के मदमस्त चली, बाद -ए-सबा है फिर से,
बोसा-ए-गुल कोई ,शबनम का हो क़तरा जैसे।
घुली है रँग-ओ-बू फ़िज़ा मेँ, गुलोँ की ऐसे,
हुई यकमुश्त बहारेँ होँ, मेहरबाँ जैसे।
यूँ परिन्दे भी उठ गए हैं , कुछ उनीँदे से,
चन्द भँवरे भी जग गए हैँ, कुछ ख़्वाबीदे से।
फूल कुछ रात की रानी के भी,खिले हैं अभी,
मोँगरा भी यहाँ, पीछे कहाँ रहा है कभी।
गुलोँ मेँ हरसिंगार पर, है जवानी आई,
देख ये बेला, चमेली पे भी बहार आई।
थी मुलाकात,पर फिर भी न कोई बात हुई,
हम थे चुप,उन पे हया,बन्दिश-ए-लब थी लाई।
याद भी उनकी जो आई,तो कब तनहा आई,
सँग कई ख़्वाब-ए-हसीँ-अहद-ए-गुजिश्ताँ लाई।
कुछ सितारे भी आ गए हैँ, गवाही देने,
उनके जैसी कोई कली, कभी खिली थी यहाँ।
ज़हन में अब भी तसव्वुर,उन्हीं का है “आशा”,
उन्हीं के नूर से रौशन है, यूँ मेरा तो जहाँ…!