चश्मा
चश्मा
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आँखें आज भी वैसी ही है
जिसमें लहराता है
झिलमिल आशाओं का अनंत आकाश
हमारे अपने गढ़े ढेरों विश्वास
आँखों पर चश्मा लग गया है
मोटे ग्लास की परत के भीतर
उसके गोल बड़े घेरे की कैद से मुक्त
अभी भी तुम्हारी
घनी पलकों वाली आँखों के
सम्मोहन मुझे जकड़ लेते हैं,
प्रेम से भरी मासूमियत
अल्हड़ता, उलाहना और
ढेरों शिकायतों के अंबार
अभी भी मुझे पकड़ लेते हैं,
प्रेम युक्त – आशा युक्त
विश्वास युक्त – समर्पण युक्त
आस्था से परिपूर्ण
समर्पण की थाती सँजोये
अब आँखों में सपनों को
बुनने वाले धागे नहीं बनते…
आदतन हम लोग भी साथ बैठकर
अपनी असफलता , उपलब्धि और निराशा या
तकलीफ के पल के साथ
उम्र के बीते दिन नहीं गिनते
क्यों कि चश्मे के फ्रेम में कैद आँखों में
सपने बुनने की अब जगह नहीं
आँखों को गीला करने की भी
अब कोई वजह नहीं।
– अवधेश सिंह