चल रात सिरहाने रखते है
चल रात सिरहाने रखते है ।
उजियारों को हम तकते है ।
दूर गगन में झिलमिल तारे ,
चँदा से स्वप्न सुहाने बुनते है ।
सोई नही अभिलाषा अब भी ,
नव आशाओं को गढ़ते है ।
चल रात सिरहाने …
थकता है दिनकर भी तो ,
साँझ तले क्षितिज मिलते है ।
नव प्रभात की आशा से ,
तारे चँदा के संग चलते है ।
टूट रहे अंधियारे धीरे धीरे ,
उजियारे तम में ही मिलते है ।
चल रात सिरहाने …
जीवन की हर आशा को ,
दिनकर सा हम गढ़ते है ।
नव प्रभातिल भोर तले ,
दिनकर सा हम चलते है ।
चल रात सिरहाने …
…. विवेक दुबे”निश्चल”@…