चल पड़े ..
आज की मेरी रचना समर्पित है उन प्रवासी मज़दूरों को जिनकी ज़िंदगी करोना और लाक्डाउन के बीच पिस गयी। उनकी हृदय द्रवित पीड़ा और व्यथा को मैंने शब्दों में पिरोने का प्रयत्न किया है।
चल पड़े….
मैं प्रवासी,हूँ तो इस देश का वासी
फिक्र कर लो मेरी भी ज़रा सी
पहुंचना चाहता हूं अपने घर
निडर,अपराधी सा नही छुपकर
किस्मत बुनने छोड़ आया था घर
अभिलाषा थी बनूँ मील का पत्थर
पत्थर हो गए पाँव चलते चलते
मिलेगा घर न जाने कौन से रस्ते
निकल पड़े,भीड़ में या अकेले
पिछे कुमलहाए बच्चों के रेले
मुँह कसा दुपट्टा,सर पर गठरी डाल
बोझ उसका भारी या कमर बँधा लाल
संघर्ष से जूझता,चुभती झुलसती लू
भूखा उदर,सूखते कण्ठ,जलती हुई भू
माँगता कांपते हाथों को फैलाए
कँटीले पथ नग्न पाँव बींधे जाए
तरसता रहा मुट्ठी भर दाने को
तड़पता अपनी भूख मिटाने को
नित्य मरता रहा लाखों मरण
न कोई सहारा न कोई शरण
दुर्बल देह की चेतना झूलती
बेबस निगाहें कलेजा चीरती
किसे सुनाए करुण कथाएँ
कौन समझेगा उर की तप्त व्यथाएँ
तम गहन जीवन को घेरे
निराशा का निवास,क्रंदन के डेरे
फिर भी थामें आशा की डोर
ग़रीबी चलती जा रहीं मंज़िल की ओर
रेखा १७.५.२०