***चल दिया काटने दरख्त को ***
निकला था घर से चलने
को कोसों दूर
बड़ी गर्मी थी फिजां में
और खोज रहा था
आराम का इक ठोर
बुरा हाल था
पसीने से हो रहा था
लथपथ, बड़ा ग़मगीन
था कि कहीं मिल जाए
राह में किसी पेड़ की
छाया का माहोल
मिल ही गया आखिर
चलते चलते और
आराम किया अपनी
थकान को दूर किया
और जब मन शांत हुआ
तो निकाल कर कुल्हाड़ी
और वार कर दिया
पल भर में ही उस ने
उस पेड़ को उस की
आत्मा से अलग कर दिया
बिना सोचे समझे
अकाल पर पत्थर
डाल कर उस को काटकर
साथ अपने वो ले चला
यही देखा है जग में
इंसान अपने स्वार्थ के पीछे
अंधा हो जाता है,
आएगा कोई और भी
और करेगा आराम, पेड़ के नीचे
इस बात को भूल जाता है
कितना खुदगर्ज हो गया
है, जिस की छाया में
सकूं ले रहा है, उस को
क़त्ल करके बड़ा सिरमौर हो रहा है !!
अजीत कुमार तलवार
मेरठ