चल-चल रे मन
चल – चल रे मन
शहर से अपने गाँव में।
यह शहर लगे है हमें
अजनबी सा डेरा।
यहाँ कोई नहीं है तेरा ,
सब करते रहते है लोग यहाँ
अपने में ही मेरा, मेरा।
चल-चल रे मन
शहर से अपने गाँव में।
जहाँ शुद्ध हवा ने अपनी
मीठी – मीठी खुशबू
चारों तरफ है बिखेरा।
इस शहर में क्या रखा है।
यहाँ तो हवा में भी
जहर घुला हुआ है।
प्रदूषण ने डाल रखा है
शहर में अपना डेरा।
चल – चल रे मन
शहर से अपने गाँव में
जहाँ रोज सुबह चिड़ियाँ जगाती है।
रून – झुन करती बेलों की घंटी,
सुबह – सुबह पगडंडी से होकर
खेतों की तरफ जब जाती है
कानों में यह स्वर कितनी सुंदर भांति है।
शहर में तो गाड़ियों का शोर है।
चारों तरफ से इस शोर ने
शहर को घेर रखा है।
इस कर्कश स्वर से कान बेचारा
हर रोज गुजरता है।
चल – चल रे मन
शहर से अपने गाँव में
जहाँ कण-कण में
प्यार भरा हुआ है।
जहाँ की गलियों में
रिशतों का मीठास भरा हुआ है।
ले चल मुझे उस गाँव के छाँव में।
यह शहर कहाँ किसी का रिश्ते का,
सम्मान करता है।
सब अपने ही धुन में रहते है।
सब बने रहते मेहमान यहाँ।
चल चल रे मन
शहर से अपने गाँव में।
उस गाँव में लेकर चल मुझको,
जहाँ सब मिलकर आपस मे
सुख- दुख की बातें करते हैं।
एक-दुसरे से दर्द बाँट कर
मन अपना हल्का करते है।
इस शहर में क्या रखा है।
जहाँ कोई नहीं किसी से बात करता है।
एक छत के नीचे रहकर भी
जहाँ कोई नही किसी से मिलता है।
बच्चे भी यहाँ माँ-बाप के,
प्यार के लिए तरस जाते है।
सब अपनी ही धुन में
यहाँ जीवन काट रहे है।
चल चल रे मन
शहर से अपने गाँव में।
जहाँ खुला आसमान हो अपना,
सुरज अपना हो चाँद हो अपना।
जिसके तले हम बैठे रहे
घंटो भर सकुन की छाँव में।
इस शहर में सकुन का
कहाँ छाँव मिलता है।
सब भाग रहे है सपनों के पीछे,
कहाँ कोई सकुन से रहता है।
सब मशीन बनकर सपनों के,
पीछे भाग रहे है।
चल-चल रे मन
शहर से अपने गाँव में
चल-चल रे मन
फिर से एकबार
उस प्यार के छाँव में।
जहाँ सब अपना रहते है,
ले चल मुझे उस ठाँव में,
चल-चल रे मन
उस गाँव में।
~ अनामिका