चल अकेला…
चल अकेला, बढ़ अकेला
बढ़ अकेला, चल अकेला ।
चाह तेरी, मार्ग तेरा
काम न आएगा मेला
चल अकेला, बढ़ अकेला …।
प्राण-तन सब छक चुके हैं
बूंद न मिलती हृदय को
तोड़ लाओ चाँद-तारे
और मिटा लो इस जिरह को ;
श्वास भर फिर देख ले तू
आ गई नवप्रात बेला
चल अकेला, बढ़ अकेला
बढ़ अकेला , चल अकेला ।
क्यों व्यथित, चिंतित खड़ा है?
हार, मुर्दों-सा पड़ा है
जीव को मुक्ति है प्यारी
मुक्ति की युक्ति है सारी
तोड़ बेड़ी-बंधनों को
कर पुनः जीवन से भेला
चल अकेला, बढ़ अकेला
बढ़ अकेला, चल अकेला ।
(मोहिनी तिवारी)