चलो हर गली एक मंदिर बना दें,
चलो हर गली एक मंदिर बना दें,
ख़ुदा का बसेरा हो’ मस्ज़िद बना दें ।
उठीं जो दिवारें जहाँ मज़हबों की,
चलो आओ’ मिलकर उन्हें हम गिरा दें
कभी जान लें हम मज़बूरियों को,
जले झोपड़ों को फिर से सज़ा दें ।
अभी हाल में जो मरा भूख सहकर,
उसे एक बढ़िया कफ़न ही’ दिला दें ।
रहे अब न ‘अंजान’ बेबस वतन में,
सभी दूरियों को चलो हम मिटा दें ।
दीपक चौबे ‘अंजान’