चलो राम …
चलो राम … हम आज ठहाके लगा कर हॅंसते हैं
राम नामी चादर भूखों को ओढ़ा कर हम देखते हैं
भूख से रोते बिलखते दीन – हीन अर्थ विहीन चिल्काओं की
तुम्हारे सियासी नाम की रोटी से भूख मिटा के देखते हैं
जिन माॅंऔं के छाती में उतरी ही नहीं दूध की गंगा
उन माॅंऔं को तुम्हारे नाम की माला पहना कर देखते हैं
हे राम चलो हम दिनों के पथराए हाॅंथों पे
पेट की आग में दो जून की रोटी नून के बदले
तुम्हारे नाम का मनका रख कर देखते हैं
क्या भूख मिटी है उनकी या प्यास बुझी है उनकी
चलो तुम्हारे संग चल के हम गरीबों की बस्ती में ये सब देखते हैं
भूखों के घर में भी क्या और क्यूॅं ये रोग भला
खून बेच कर मन्दिर का भगवान भला क्यूॅं कर पला
हे राम क्या तुम हबसी हो या तुमको पूजने वाले ही कपटी है
जब भूखी हमारी बस्ती है
जब मौत महंगी जीवन वहां पे सस्ती है
जब धन कुबेरों की कोठी से
दूध की नदियां तुम तक पहुंचती हो
मन्दिरों के भूतल में जब धन का संचय होता हो
दीन हीन मजबूर आदम जब भूखे पेट ही सोता हो
पाथर हृदय पथार आंखें तुम्हारी जब नहीं खून के आसूं रोता हो
तब कैसे तुम भगवान हुए, कैसे हम इंसान हुए
ये भूख की चारदीवारी को हे राम चलो हम ठहाकों से तोड़ते हैं…
~ सिद्धार्थ