चला गया
दुःख की वह प्रस्तावना लिखकर चला गया
शैली निगमन भावना लिखकर चला गया
क्या लिखूँ क्षणों को जिसमें मैं स्वयं नही
मैं इक अबूझ कामना लिखकर चला गया
टकरा के पूछता हूँ मैं घर की दीवारों से
क्यूँ अपनों को यूँ बाँटना लिखकर चला गया
माना है उसके हाथ में खुशियों की लकीरें
क्यों अपनी वो दुर्भावना लिखकर चला गया
समझेगा मुझे कौन अब मुझे कौन पढ़ेगा
मुझको हठयोग साधना लिखकर चला गया
मैं ग्रन्थ हूँ अभिभूत व्याकरण लिए हुए
पर वो मुझे दुःख माँजना लिखकर चला गया
मेरी है ‘महज’ कामना दुनिया मुझे पढ़े
कुछ अंश मन सुहावना लिखकर चला गया