चन्द श़ेर
जब से हम उनके हमद़र्द बन गए। अपने सारे द़र्द हम भूल गए ।
तिश़नगी ए इश़्क बुझाए नहीं बुझती। लाख कोश़िश करो छुपाए नहीं छुपती।
उल्फ़त जिनसे हो गई ग़र लाख दगा दें वो। उनसे नफ़रत नहीं हो सकती।
ग़ुरब़त का अस़र हम पर जब हुआ। हम दौल़त की क़ीमत पहचान सके।
कोश़िशें लाख़ हों मग़र जब तक दुआ़ओं का ना हो अस़र । कामय़ाबी हास़िल नहीं होती ।