चंन्दा जैसा रुप मिला न
एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
**चंन्दा जैसा रुप मिला न**
चांद को जानना है
तो कभी चाँदनी से पूछना
युं तो कोई भी छंद लिख
कर लोकाचार गुन सकोगे
चांद की आस्थाओं का
मगर मनन न हो सकेगा
छूना तो बहुत दूर की बात है
चांद की शीतलता का भी
अनुभव न हो सकेगा
करी थी कोशिश मैने भी
एक बार चांद को मन से छुने की
उसके दीदार भी न कर सका
तिरस्कृत हुआ सम्मान के साथ्
मनोबल गिरा सो अलग
अपनी नजरों में ही मैं अघोरी हुआ
चाँदनी लजा कर छुप गई
अपमानित सा भीगा सा वापिस हुआ
फिर झुका नम्रता से , प्रेम का लेकर सहारा
अकिन्चन सा मैं याचक बना
मुस्कुरा कर चाँदनी ने स्वागत मेरा किया
तब कहीं जाकर मुझे चांद ने था दर्शन दिया
चांद को जानना है
तो कभी चाँदनी से पूछना
युं तो कोई भी छंद लिख
कर लोकाचार गुन सकोगे
चांद की आस्थाओं का
मगर मनन न हो सकेगा
चांद और चाँदनी के प्रेम के किस्से
सुने होंगे बहुत शायरी होंगी पढी अनगिनत
कवियों की कविताओं में पाया होगा
वर्णन उसकी सोम्य छवि का अप्रतिम
महसूस किया होगा दिल में
रुप उसका अपनी प्रेमिका सा मादक मधुर
करी होगी याचना अपनी प्रिया के दरस को
हजारों बार उसके माध्यम से
जब विलग रहे होगे प्रेयसी के विरह मे
दिए होंगे लाखों सन्देस चन्दा से मनन कर
दिल ही दिल में चाँदनी से
चांद को जानना है
तो कभी चाँदनी से पूछना
युं तो कोई भी छंद लिख
कर लोकाचार गुन सकोगे
चांद की आस्थाओं का
मगर मनन न हो सकेगा