चंद मुक्तक- छंद ताटंक…
अपनी भाषा अपनी संस्कृति, किसे न मोहित करती है ?
अपनी माँ या अपनी मासी, किसे न प्यारी लगती है ?
पर अपना ये देश अनूठा, पर संस्कृति पर मरता है।
पर भाषा के पीछे लगकर, निज को लांछित करता है।१।
नदी हमारी मात सरीखी, हमको जीवन देती है।
विमल-शुद्ध कर बदन हमारा, पाप हमारे खेती है।
सींचे खेत अन्न उपजाए, सगरे जग की थाती है।
मंथर गति से बहती जाती, कल-कल स्वर में गाती है।२।
तुम बिन लगता कहीं नहीं मन, खोया-खोया रहता है।
डूब तुम्हारे ख्यालों में ये, कुछ न किसी से कहता है।
बदल गए दिन रात सभी कुछ, जबसे तुमको देखा है।
फलित हुए ज्यों पुण्य हमारे, शुभ कर्मों का लेखा है।३।
कहते आए सभी अभी तक, नारी अबला होती है।
झेल न पाती तनिक कड़ाई, बात-बात पर रोती है।
मूरत ममता-प्रेम-त्याग की, जीवन जग को देती है।
किसमें इतना बल है बोलो, बला स्वयं वर लेती है।४।
नहीं लडेंगे नहीं भिड़ेंगे, सबका साथ निभाएंगे।
सबका मान बढ़ाएंगे, सबका हाथ बँटाएंगे।
स्वर्ग गगन में अगर कहीं है, उठा जमीं पर लाएंगे।
मिलजुलकर सब साथ रहेंगे, भू को स्वर्ग बनाएंगे।५।
© डॉ0 सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उत्तर प्रदेश )