चंचल
चंचल
तरुणाई का
चंचल सा सूरज
पूरब के व्दारे से
आतुर आंगना
आने को
चंचल सा चंदा
बिखेर गया
आशाओ की
बाराते ले कर
बैरागिन सी ठगी
रह गयी
चन्द्रकलाओं की
चाल में
रहे गये अनगाये
चंचल गीत लिखे
भाषा थी मौन
हवाओं ने गाये
चंचल गीत
पत्तों ने दी ताल
चेहरे उदास
टूटे दर्पण
चंचल
प्रतिबिम्बित
सपनों के संसार में
अपने अनुरागी
अन्दाज़ को
भरमाऊँ मैं कैसे
प्रेम रंगी चूनर ये
पहनाऊँ मैं किसको
चंचल मन ने
बता दिया नाम तेरा
शैय्या पर
लेटा हूँ
अंतरमन की पीड़ा है
अर्थी के बंधन है
घास-पूस की शान है
चंचल आत्मा
देख रही है
शान से
सूखी साखों पर
घोसले है
पंछी रहते आराम से
चंचल मन इन्सान
दुखी है भौतिक
सुविधाओं के
इन्तजार में
लेखक संतोष श्रीवास्तव बी 33 रिषी नगर ई 8 एक्स टेंशन बाबडिया कलां भोपाल