घोड़े का दर्द
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घोड़े का दर्द अनसुलझा है।
जब तक आदमी के मन में
घोड़े के असह्य दर्द की अनुभूति
न जागे।
अभागे!
आदमी देखता है घोड़े की ओर ।
उसे मजबूत पुट्ठोंवाला तन से दुरुस्त चाहिए, घोड़ा।
खेत में हल जोतनेवाला हलवाहा भी,
वैसा ही।
आदमी के मन में दर्द कंजूस है, पराया।
उदार और खर्चीला ही
अपना लगे।
आदमी को युद्ध लड़ने के लिए
घोड़े चाहिए होते थे।
चलायमन होने के लिए
भागते,दौड़ते घोड़ों की भी।
आदमी का मूंछ बड़ा हो न हो
है ऊंचा,उसके मूंछो का ताव।
तुर्रेदार पगड़ी का और घुमाव।
इतना सहज तो नहीं कि
पराये पीड़ा को अपना कहे।
कहकर गौरव और गर्व का अनुभव करे।
दर्द के प्रहर में
अपनों का प्रहार
कितना कठिन है,सहना।
तेल को जलने का दर्द है।
दीये को उसे जलाने का।
किन्तु,
गौरव भी।
प्रकाश बांटने का।
प्रकाश बांटने का दर्द,
इसलिए उज्ज्वल है।
उदार और खर्चीला।
घोड़े का दर्द उदास न हो
ईश्वर की सत्ता का सोच,
जीवित रहे।
ईश्वर हो न हो।
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