घिरता अंधकार
अंधकार का बीज
अंकुरित हो रहा
सन्नाटो में
चीख में,चिल्लाहट में
जनता के दिमागों में ।
धर्म ,जाति, सम्प्रदाय
खाद पानी दे रहा
नीति अभियंता
कानून नियंता
पोषक प्रकाश हो रहा ।
बढ़ रहा फसादों से
जूठे विचारो से
खून पानी हो रहा
मजबूर इतिहास रो रहा
अंधकार मुँह खोल रहा ।
बीज वृक्ष हो रहा..
मधुविष हवा में घुल रहा
पत्तियां निकल रही
ज्योतिर्प्रभा को ढँक रही
अंधकार बढ़ रहा
वृक्ष दारोमदार हो रहा ।
बरोह जड़ बढ़ चली
बंधित्व रस चूस रही
जकड़ रही सोच को
जीवन के प्रमोद को
निर्लज्ज कर
वृक्ष पाप शक्ति हो रहा ।
लालच देकर छाया का
संकृति बिलख रही
अधार्मिक प्रहारों से
पाखंडी विचारों से
जमीर को मसल रहा
वृक्ष तांडव कर रहा ।
घृणित कली खिल रही
पुष्प मंजरी बन रही
बिखर रहा दिशाओं में
लालची अकुशल
नासमझी फिजाओं में ।
वृक्ष अस्वमेघ कर रहा
रक्तबीज बिखेर रहा
शकुनि मन्त्र गढ़ रहे
तरुण आहुति दे रहे
कुरुक्षेत्र देश बन गया
संखनाद वृक्ष कर रहा….