घर बिखर गया
खूँ हो गया सफ़ेद कोई जैसे मर गया
रिश्तों से रंग प्यार का ऐसे उतर गया
कोई कमी न थी न कोई चाह थी मगर
बदला उधर जो दौर इधर घर बिखर गया
कोई न साथ चल सका दिन चार भी यहाँ
कोई इधर चला गया कोई उधर गया
महबूब भी मिला था मुझे एक फ्रिकमंद
तनहा जमीं पे छोड़ वही हमसफ़र गया
यादों के कारवां ही फ़कत साथ रह गए
मुझसे हकीकतों का तो मन ही भर गया
है जिंदगी उदास मेरी भूख मिट गई
खुशियाँ न पा सका न ही गम छोड़कर गया
आँखों में रह गई नमी गम जब्त कर लिए
नदिया ठहर गई एक दरिया ठहर गया.
~ अशोक कुमार रक्ताले.