घर का छत
कैसे भूल सकता उस पल को अब मैं
सीखा था जब अपने पैरों पर चलना
आपकी अंगुली पकड़ कर साथ साथ
चलते चलते लड़ख़ड़ा कर फिसलना
बचपन में जब कभी घर से बाहर जाता
आपको डर रहता था कहीं खो न जाए
कहीं ऊॅंच नीच कुछ हो जाएगा फिर
लौट कर घर शायद वापस ही न आए
मेरे लौटने की प्रतीक्षा में आप दिन भर
आँगन से दरवाजे तक चक्कर लगाते
जब कुछ नहीं मिलता तो गुस्सा होकर
चुपचाप बैठी माँ को ही दो बात सुनाते
याद है मैट्रिक की परीक्षा के समय में
मेरे लिए आप कितनी चिन्ता में थे पड़े
परीक्षा कक्ष से मेरे बाहर आने तक आप
सेंटर के बाहर सड़क पर धूप में थे खड़े
कैसे एक रात खाना खाने के बाद जब
किसी काम से मैं कहीं चला गया था
मुझे घर में कहीं नहीं देख कर तो जैसे
लगा कि आपका प्राण कहीं चला गया
पलक झपकते ही इस चिन्ता में घर पर
आपने कितने लोगों को तुरंत बुलाया था
मेरे सकुशल वापस आने के बाद आपने
गुस्सा में कितनी बातें मुझे सुनाया था
आपके अचानक ही चले जाने से तो
मेरा तो सब कुछ जैसे अब लूट गया
हमारे घर का वह मजबूत सा छत भी
लगता है पल में जैसे अब टूट गया
इसी कारण मन में एक खालीपन है
रहा कहाॅं अब हमें कोई पूछने वाला
मन में जो जब आये कर सकता हूॅं
कहाॅं अब अपना कोई टोकने वाला
कहीं अब ऐसा तो नहीं आप सोच रहे
कि मैं अब बहुत ही बड़ा हो गया हूॅं
अपने बल से अपने मजबूत पैरों पर
मैं अब तो स्वयं ही खड़ा हो गया हूॅं
ताकि दूर तक की दुनिया मैं देख सकूं
आपके कंधे पर बैठ कर घुमा करता
दूर तक के सोच की शिक्षा पाकर अभी
आपकी कमी जी भर कर महसूसा करता