घर आ गया
मैं यूँ खुद के बिखरे पुर्ज़े सिमटाता, घर आ गया,
ज्यों चरवाहा अपनी भेड़ें लौटाता, घर आ गया,
हर बशर बिकने को बैठा है, रिश्वत के बाजार में,
मैं खरीदने की हिम्मत जुटाता, घर आ गया,
महीने भर की आरजूएं, आज आयीं जेब में,
मैं सब तकाज़े निपटाता, घर आ गया,
हवा में बह गया वो, कट के पतंग सा,
मैं अपनी डोर लिपटाता, घर आ गया,
ज़ुदा हुआ तो मेरे वज़ूद का हिस्सा ले गया,
मैं शदीद दर्द से छटपटाता, घर आ गया,
जाने भीड़ में कौन था हिन्दू कौन मुसलमाँ,
‘दक्ष’ दंगाइयों से कटता-कटाता, घर आ गया,
विकास शर्मा ‘दक्ष’
बशर = इंसान ; शदीद = तेज़ / तीव्र ; तक़ाज़ा= आग्रह