घर अब मकान बन गए
घर घर नहीं रहे अब मकान बन गए
घर अब इस जहाँ में दुकान बन गए
रहते थे सभी संग मौज मस्ती में
देखो,अतीत की मिशाल बन गए
छोटे घर थे पर दिल विशाल थे
दिल लघु पर बड़े मकान बन गए
प्रेम प्यार में सभी लिप्त लुप्त थे
खिले उद्यान अब विरान बन गए
बरगदी घनी छाँव में पले बड़े हुए
AC की बयार में बीमार बन गए
हास्य ठिठोली ठहाकों की गूंज थी
उतरे चेहरे बुझे हुए चिराग बन गए
संयुक्त कुटुंब में रोज मेले भरते थे
एकांत में अब एकाकीपन बन गए
जी भर के जीते थे प्रत्येक रिश्ते को
अब संबंंधों में रिश्ते अकाल बन गए
दादा दादी की गोद मे लोट पोट हुए
ये निज रिश्ते भी अब लोप बन गए
जिन्दादिली मनुभावों की मिशाल थे
अब वो भाव अधूरे अरमान बन गए
घर घर नहीं रहे अब मकान बन गए
घर अब इस जहाँ में दुकान बन गए
सुखविंद्र सिंह मनसीरत