“घरौंदा”
“घरौंदा”…..
ये नाम सिर्फ इतिहास का
हिस्सा सा लगता है
दादी नानी की कहानी का
कोई किस्सा सा लगता है
अब कहाँ नज़र आते हैं घर
अब नज़र आते हैं तो,
बस चूने सीमेंट से बने
एक के ऊपर एक रखे,
एक दूजे का बोझ से ढोते
बिना ज़मी और आसमान के अनाथ से
रंगीन दीवारों और महँगे सामान से सजे हुए
जहाँ रिश्ते एक दम बेरंग से
और ज़िंदगियाँ बेढंग सी बिखरी हुई
न तुलसी की सुगंध न मंदिर की घंटी
हवा में बहती है तो बस wifi की तरंग
और सुनाई देता है तो
बस फ़ोन का vibration
यहां न रसोई में पूरियां छनती है
न शाम वाली वो चाय बनती है
कुछ जिस्म रहते हैं यहाँ
एक दूजे से बेखबर
ज़िंदगी की दौड़ में
सबको पीछे छोड़ने की होड़ में
न जाने कब जाते हैं
कब वापस आते हैं
सच ये मकान ऐसे ही होते हैं
बिना अहसास,बेजान
इसे कैसे कह दूं “घरोंदा”
ये घरोंदे का अपमान
“इंदु रिंकी वर्मा”