घरौंदा
घरौंदा
समँदर किनारे
एक घरौंदा बनाया था
मैंने रेत पर।
अंजाम से अनजान,
निपट,नादान
फिसलते रेत कण
दरकते सपने
बड़े जतन से सहेज कर।
झूमा था मन-मयूर,
पागल,खुशी से इतराया था।
भाग्य का बखेड़ा,
अरे अथाह जल माला को किसने छेड़ा
तूफान किनारों से शायद
टकराया था।
एक ही तो लहर आई
और घरौंदा बह गया।
आश्चर्यचकित, विस्मित मैं
बस खड़ा रह गया।
-©नवल किशोर सिंह