घमण्ड ही रह जाता
घमण्ड ही रह जाता
भावशून्य पत्थर को
अपने पत्थर होने का
कभी ना टूटने का
कभी ना झुकने का
जिद में अपनी बस
अड़े ही रहने का
सीने पर उसके जो
उग आने के लिए
इक छोटा सा पौधा
इतनी हिम्मत न दिखाता
अपने कोमल पत्तों से
जो उसके बेजान से
अकड़े अंग न सहलाता
उसके रंगहीन रूप को
जो अपने सुंदर फूलों
के रंगों से ना सजाता
उसकी भावशून्यता को
जो अपनी मनमोही सी
महक से न महकाता
पत्थरदिल में घर बनाने
की अपनी जिजीविषा से
जो उसके मन में भी
ढल कर कुछ बन जाने
की उम्मीद ना जगाता
और अंत में इक छोटा सा
मौसमी जीवन जी कर
उसके पत्थर से मन में
प्रेम की पीड़ा न जगाता
और अब उस कोमल
कंपोल पौधे के विरह में
इस कदर बदल लिया
उस भावशून्य पत्थर ने
कि घमण्ड में ही अड़े
रहने वाला वो पत्थर
सीने पर अपने छैनी
छुरियां तक चलवाता है
सह कर वो दुख दर्द
जिस्म अपने पर सारे
खुद को इक मुकम्मल
से आकार में ढलवाता है
और इस तरह महसूस
करता है वो उस छोटे से
पौधे के सहज प्रेम को
अपने नए ढले रूप में……
सुना है मैंने तुम भी
पत्थरदिल ही हो
फिर तो याद आएगा
तुम्हें भी किसी दिन
तुम्हारे पत्थर से सीने पर
किसी का सर रखना….
दीपाली कालरा