घनाक्षरी ( श्रंगार गीत )
घनाक्षरी ( श्रंगार गीत )…
जीवन हुआ है भारी,खो रहीं खुशियाँ सारी, विरह-विदग्धा नारी, प्रिय को पुकारती।
कहाँ गए तुम नाथ, क्यों छोड़ गए यूँ साथ, झुकाऊँ कहाँ ये माथ, सोच न मन पावे।
रो-रोकर बीते रात, दग्ध मन अकुलात, मदन मंद मुस्कात, चैन न चित्त आवे।
मन में भरे उमंग, सखियाँ प्रिय के संग, नाचत मोड़ के अंग, सुनाम उचारती।
जीवन हुआ है भारी,खो रहीं खुशियाँ सारी, विरह-विदग्धा नारी, प्रिय को पुकारती।
मदन लगाए घात, करे बहुत उत्पात, सूखे अधर औ गात, विरह झुलसावे।
देख ये दशा विचित्र, सखि छिड़कती इत्र, निरख प्रिय का चित्र, धीर न धर पावे।
प्रफुल्लित दिग्दिगंत,आया है देखो बसंत, आओ न अब तो कंत, राह मैं निहारती।
जीवन हुआ है भारी,खो रहीं खुशियाँ सारी, विरह-विदग्धा नारी, प्रिय को पुकारती।
-डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)