घट रीते के रीते हैं…..
ग़ज़लः-
ग़म तो बचपन से खाए हैं,आँख का पानी पीते हैं,
किश्तों-किश्तों रोज़ मरे हम,टुकड़ा टुकड़ा जीते हैं।
लम्हा लम्हा दिन कटते हैं,पल पल युग-सा लगता है,
शिव ने तो इक बार पिया,हम रोज़ हलाहल पीते हैं।
डूबी डूबी सी धड़कन है,बोझिल बोझिल साँसें हैं,
रोज़ उधड़ जाती है गुदड़ी,टाँका टाँका सीते हैं।
बहुत फ़रेबी निकला सावन,प्यास हमारी छली गयी,
पनघट पनघट जाकर देखा,घट रीते के रीते हैं।
खण्डहर खण्डहर रिश्ते नाते,कंधों पर ढोते ढोते,
बारूदी गोदाम बना मन,चारों तरफ पलीते हैं।
मीत पुराने रंजो-ग़म हैं,दर्द रहा बचपन का यार,
जीते जीते मर जाते हम,मरते मरते जीते हैं।।
— ‘आरसी’ R C Sharma Aarcee