गज़ल
कभी ज़ुल्फो के इन सायों में मेरी शाम हो जाये
मिरा भी आशिको की दुनियाँ में नाम हो जाये
गिला तो ये है तुम आते नहीं छत पे कभी मेरे
कभी तो आसमाँ से चाँद उतरे जाम हो जाये
शिकायत तुमसे है मेरी अदावत भी है तुम्ही से
यही सर पर हमारे जुनूँ – ऐ – इल्जाम हो जाये
जुदा हो कर कहीं मर जाएँ ना तन्हाइयों से हम
कही वो मौत ना तेरे बगैर बेनाम हो जाये
जहाँसे बेखबर हो कर बसाया दिलमें तुम्ही को
छुपाते फिर रहा तू ना कही बदनाम हो जाये
इशारों ही इशारों में कभी इजहारे मुहब्बत हो
तरसती इन निगाहों को तिरा पैगाम हो जाये
( लक्ष्मण दावानी )
1/11/2016