गज़ल
दर्द ग़ज़लों में गुनगुनाते है
चोट खा कर भी मुस्कुराते है।
फासला मौत से नहीं ज्यादा
ये बुढ़ापे में डर सताते हैं
दुश्मनों पे न शक करो यारो
तीर अपने हि तो चलाते है
दिल बचाना हसीं जलवों से
चौके छक्के अदा से आते है।
हर बुराई मेरे ही माथे मढ़
सब्र मेरा वो आजमाते है
बेवफा से वफ़ा निभाई थी
अब जफ़ा से भी कुछ निभाते है
घुमते रोज आसिया माफिक
कर्ज जीवन के हम चुकाते हैं।