गज़ल/ गीतीका
चलो फिर से हंसने का सामान जुटाया जाये
टूटें दिलों को सिरो को फिर से जोड़ा जाए
चाँद हथेली पर नहीं उगता लेकिन फिर भी
टूटे हूए तारों से घरों को रौशन किया जाए
सर्दी की सुबह से दोपहर की धूप ही बेहतर
अपने छत के मुंडेंर पर इसको उतारा जाए
शाखों के झूलते पत्ते पर बिखरें हैं जो मोती
एक कत़रा भी उनको न जा़या किया जाए
भींगने को बारिश भी न मिले तो क्या किजे
शबनम के बूंदों से भींगकर घर आया जाए
स्वलिखित डॉ.विभा रजंन (कनक)