ग्रीष्म और श्रम (समकालीन कविता)
ग्रीष्म का स्पर्श
अब, आनंद नहीं है
अमराई का ।
तपती आशाओं
पर छिड़का
महँगाई का नमक है ।
कोई अवसर
दिखता नहीं है
आदमी की करतूत में ;
कि तपन कम हो
और रस भरे शहतूत में ।
“सड़े कोल्ड-ड्रिंक्स”
की वृष्टि-छाया में
खो गया है
कच्चे या भूने हुए
आम का पना ।
फ्रीजर में रखी
नकली लस्सी ने
भुला दिया
मिट्टी के बर्तन में
बिलोया ठण्डा दही ।
छाछ तो है ..
लेकिन पतली और पनीली ;
जो कर ही नहीं सकती
गर्मी से सामंजस्य ।
नीम की
शाखाओं में/पत्तियों में
हो रही है
अनवरत कमी
प्राणवायु (आक्सीजन) की ।
आम भी
अब दमदार नहीं हैं ,
बोनसाई हैं ।
पीपल भी हैं
किन्तु उनमें
आदमी नहीं
प्रेत ही ठहरते हैं
ठण्डक पाने के लिए ।
इसलिए
यदि आप जाएँ
भी कभी अपने ही गाँव;
तो, “ले दे कर”
बस, वही एक
बूढ़ा बरगद आज भी
बैठा मिलेगा वैसे ही
टकटकी लगाए
कि आओ ! बाबू
तनिक तो बैठ लो
मेरी कमज़ोर छाँव में ।
बड़े दिनों में
आए हो न अपने ही
इस बदलते गाँव में ।
देखो ! नक्कारों ने
काट दीं मेरी
कमज़ोर डालियाँ ।
अब नहीं आते मुझमें
वो पके-पके-से फल ।
अभी तक तो
टिका हुआ हूँ ..
जाने ! क्या होगा कल ?
सत्तू तो है ..
किन्तु “आर्टीफिशियल”
उसमें भुने ” जौ और गेहूँ ”
के कसैले स्वाद
से मिश्रित भुने “चने”
की “चिपचिपाहट” नहीं,
बल्कि “हिचकिचाहट”
है, कृत्रिमता के समावेश की ।
पुराने चबूतरे की
“शीतल-मिट्टी” पर अब
“टाइल्स” लग चुके हैं,
जो तपन के ही सहचर बन,
छोड़ते हैं अनवरत
हमारे “दिल-ओ-दिमाग़” में
कृत्रिम-ग्रीष्म का
पृथक असह्य बोझ ।
घरों में मिट्टी की
छाप करना, आज
आत्मसम्मान का विरोध है ।
फिर भी जाने क्यों ?
हमें , तुम्हें और सभी को
अनवरत हो रही इस
तपन पर क्रोध है ।
अनवरत चलती
हाक़िमों की कुल्हाड़ी से
क्षत्-विक्षत् हो रही ‘वन्या’ ;
फिर भी ‘उत्तप्त दुपहरी’ में,
सिर पर लकड़ी की ‘मुहरी’
लिए निकल पड़ी
अल्हड़ ‘आदिवासी-कन्या’ ;
आधुनिक ‘चटक-फटक’
से बेख़बर ।
सचमुच ! श्रम के आगे
नतमस्तक है – ग्रीष्म भी ,
तपन भी,
आकाश भी,
ओजोन-छिद्र से निकलता
अवरक्त ………प्रकाश भी ।
पसीने की महक में ही
खनक है बिन
पायल के पायल की ।
पसीना ही औषधि है
तेज लपट से घायल की ।
अब पसीना बहता नहीं है ;
इसलिए अम्ऩ-ओ-शुक़ूँ
रहता नहीं है ।
” पसीने को फिर निकालो ;
पसीने में ख़ुद को ढालो ।
पसीना जमकर बहाओ ;
पसीने में तुम नहाओ ।
पसीने की बूँद काफ़ी ,
हरज़गह मिल जाए मुआफ़ी ।
पसीने से नगर बनते ,
पसीने से गाँव जगते ।
पसीना अंतिम सहारा ,
तपन सब ले जाएगा ,
थकन सब ले जाएगा ।
पसीना जब दम भरेगा,
घुटन को भी कम करेगा ।”
—– ईश्वर दयाल गोस्वामी ।