ग्रीष्म ऋतु —
मुक्तक —
सर्जन शब्द ग्रीष्म —
2122–2122–2122–212
सादर समीक्षार्थ —
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गर्मियों के भोर में लो, आग से जलता बदन,
बारिशें होती नहीं रवि, ताप से जलता गगन।
पेड़-पौधें प्राण वसुधा, संतुलन नित कीजिए –
फूल कलियों के बिना वीरान सा रोता चमन।।
ताल सरवर सूखते अब, नीर को तरसें तभी,
साँस घुटती ये हवाएँ, लो हुई बेदम अभी।
कर दिया कंक्रीट वन को, पेड़ सारे काट कर-
वृक्ष से खुशहाल धरती, पालती जीवन सभी।।
✍️ सीमा गर्ग ‘मंजरी’
मौलिक सृजन
मेरठ कैंट उत्तर प्रदेश।