ग्रीष्म ऋतु के रुठे पवन
ग्रीष्म ऋतु के रुठे पवन,
छोड़ रीति कर आलिंगन।
था दिन वह जब, शरद पिता के कारण,
तुझसे न ऑंख मिलाई,
ओढ़ चादर नैना भी छुपाई,
गए पिता, बीता वो दिन,
मचल उठा चंचल मन,
ग्रीष्म ऋतु के रूठे पवन,
छोड़ रीति कर आलिंगन।
अविलंब मिलन की है उद्विग्नता,
तरपित हृदय की उदित चंचलता,
कहूँ किससे चित की बात,
हो रुठे क्यों ग्रीष्म वात,
किस क्षण होगा तुझसे मिलन,
ग्रीष्म ऋतु के रुठे पवन,
छोड़ रीति कर आलिंगन।
कब तक रुठा रहेगा मनहर,
बीते कितने दिन और प्रहर,
मिट रहा अब आश प्रिया का,
टूट रहा विश्वास जिया का,
तू है कहाँ? बना घना आवरण,
ग्रीष्म ऋतु के रुठे पवन,
छोड़ रीति कर आलिंगन।
आश में, बैठी अहर्निशं हम
क्या दिवास्वप्न है? मिलोगे तुम,
दिनकर दे रहा तन- मन जलन,
किया मौसम परंपरा-सा अवरोधन,
कर दे तू रीति का अतिक्रमण,
ग्रीष्म ऋतु के रुठे पवन,
छोड़ रीति कर आलिंगन।
उमा झा🙏💕