गौरैया
कहते हैं
उसका अस्तित्व
समाप्त होता जा रहा है
उसकी प्रजाति
विलुप्त होती जा रही है
पर आज भी वो
दिख जाती है
घास के छोटे-छोटे
तिनको को दबाए
मेरे गाँव के
बूढे़ होते
घर के आँगन में
अपने धूसर रंग को
टाट के फूस से मिलाती
वो छोटी सी चिरैया
अटारी पर रखी
फुलवारी में
छुपम-छुपायी खेलती हुई
स्व का छोटा सा
आभास कराती
उसके खिड़की के घुनियाते
दरवाजों के ऊपर
भुस के छोटे तिनकों
नीम की छोटी-छोटी
सूखी कोंपलों
से बने घोंसले में
अपनी पनियाती
गोल स्मित आँखों
के कटोरों को
घुमाती
कुछ सुनती
गुनती
टेढी़ गरदन से
बहमी नजरों से
घूरती
वो नन्हें पैरों से
आंगन की
कच्ची सौंधी माटी
की गंध लेती
उखडी़ दीवारों पर
लटकी पुरानी
तस्वीरों पर
पंखों को
फड़फडा़ती
अपने छोटे से
संसार में खुश
दिख जाती है
वो गौरैया
अब भी
मेरे गाँव के
बूढियाते
आँगन में
पीपल नीम
औ’ बरगद की
अधेड़ देहों पर
सरसराती सी वो
उन पर रहते
सारस बुगलों घुघ्घियों से
बात बनाती वो
पास बहती
हिण्डन नदी के
कूलों पर
बने छोटे-छोटे
रेत के गड्ढों में
स्थिर पानी में
नहाई सलेटी सी
मुट्ठी भर काया को
आतप में सुखाती
दिख जाती है
वो गौरैया
गेहूँ के
सुनहले होते
खेतों में
उनकी छोटी-छोटी
बालियों से
अनाज के
बीजों को निकालते
शहतूत के पीले
पत्तों पर
छोटी-छोटी
इल्लियों को
धकियाते
अपने नर से
चोंचरिया खेल खेलते
अब भी
दिख जाती है
वो गौरैया
मेरे गाँव में
जुलाहे के धुनते
रूओं के
उजले गट्ठरों के पास
बिनौलों को
चुगियाते
छप्पर की
खपरैलों में
अपनी छोटी सी
चञ्चु से
ठकियाते
दुपहरिया में
करवे की ठंडी
पीठ से चिपके
अब भी
दिख जाती है
वो गौरैया
मेरे गाँव में
#सोनू_हंस