गोरा रंग
गोरे रंग रूप पे मिटी हुई – सी
सारी दुनियादारी है….!!
ये कैसी आधुनिकता है…?!!
ये कैसी समझदारी है….?!!
माना कि प्राचीनकाल से ही …
सौंदर्य पे कविता भारी है….
पर अपने रूप को शाप समझना…
ये तो स्पष्ट” मती- मारी “है!!
कितने ही धंधे चलते है ..
इस रंग- रूप -व्यापारी में…
हां हम भी तो इक हिस्सा हैं…
इस दिखावटी तैयारी में….
किशोर – किशोरी ना जाने कितने…
इस दुविधा के मारे है…
रंग रूप और नैन –
क्या ये पहचान हमारे हैं???
यदि सुंदरता ही इस तन की …
हो जाए मानक स्वरूप …
फिर लाभ ही क्या इस शिक्षा का?
जब मूल्य ही हो जाए कुरूप
माना कि हां कुछ इक हद तक
हां ठीक भी ये *मक्कारी है!!
पर यह क्या कि खुद की पहचान पर
रंग -रूप का ठप्पा भारी है!!