*गृहस्थ संत स्वर्गीय बृजवासी लाल भाई साहब*
गृहस्थ संत स्वर्गीय बृजवासी लाल भाई साहब
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कष्ट देह के समस्त जन यहॉं पाते रहे
चाहे कोई कितना भी बड़ा हुआ संत है
जाने जन किस-किस रोग से ग्रसित हुए
व्याधियों ने पाया रूप वैभव अनंत है
रोग कब लगे कब – कब तक लगा रहे
विकरालता का होता रोग का न अंत है
एक-एक कर सब देह पर गड़ा रहा
विष-भरा महाकाल लिए विष दन्त है
वास्तव में शरीर के कष्टों से किसी भी शरीर- धारी व्यक्ति का बच पाना असम्भव होता है। दीपावली को सायंकाल लगभग पांच बजे अर्थात एक नवम्बर 2005 को जब श्री ब्रजवासी लाल जी भाई साहब ने शरीर त्यागा, तब सचमुच उनका शरीर जीवन जीने योग्य शेष नहीं रहा था । छह माह से वह मृत्युशैया पर थे । कूल्हे की हड्डी टूट चुकी थी । चलने-फिरने में असमर्थ थे । अन्तिम दो – तीन माह से तो उन्हें अचेतन अवस्था में ही कहा जा सकता है। न पहचानते थे, न बात करते थे । ऑंखें बन्द रहती थीं। मूर्छा में ही श्वासों के भीतर से राम-नाम का उच्वारण हो जाता था । शरीर को ऐसा भी कष्ट होता है तथा परमात्मा ने जिस मनुष्य शरीर को रचना की है, उसी ने ऐसी भयंकर रोग-व्यवस्था का भी विधान किया है – यही मानकर ईश्वर के इस निर्णय के सम्मुख नतमस्तक होना पड़ता है। शरीर की व्याधियों के आगे मनुष्य विवश है। रोग किसी को, कभी भी, किसी भी आयु में और कितने भी
लम्बे समय के लिए लग सकता है। शरीर की हमारी रचना ऐसी है, यही मानकर विवशतापूर्वक यह नियति स्वीकार करनी पड़ती है।
बहुधा तीजे अर्थात उठावनी के अवसर पर बृजवासी लाल जी भाई साहब के सदुपदेश सुनने को मिलते थे । वह उठावनी का एक अर्थ यह बताते थे कि यह उठावनी इसलिए मनाई जाती है कि सारे लोग एक जगह बैठें और विचार करें कि इस संसार से सभी मनुष्यों को एक न एक दिन उठ जाना है। यह केवल मृतक के इस दुनिया से चले जाने पर शोक का अवसर ही नहीं होता, अपितु समस्त जीवित प्राणियों को भी सचेत करने का अवसर होता है कि अपने जीवन और कार्यों को सदैव इस प्रकार का बनाकर रखो कि तुम्हें सदा यह बोध रहे कि मृत्यु निश्चित है। जो प्राणी मृत्यु को जान लेता है वह जीवन के सत्य को पहचान लेता है । फिर उसे राग और द्वेष स्पर्श नहीं करते। इस प्रकार के सदुपदेशों से ब्रजवासी लाल जी का मार्गदर्शन जन समूह के लिए बहुत लाभदायक विषय था। उनका भाषण केवल भाषण नहीं होता था, अपितु उसमें एक वैराग्यपूर्ण जीवन जीने वाले एक महान सन्त की अन्तरात्मा से प्रस्फुटित विचारों की आभा प्रकट होती थी।
ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो विभिन्न धार्मिक समारोहों में भाग लेते है। ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो सत्संग तथा कथा-श्रवण में सबसे आगे नजर आते हैं। ऐसे लोग भी अनेक हैं जो स्वयं को सगर्व धर्मप्राण कहते हैं। ऐसे लोगों की तो कमी ही नहीं है जो धार्मिकता का भरपूर स्वांग रचते हैं तथा अनेकानेक रीति नीतियों से अपनी तथाकथित धार्मिकता का प्रदर्शन करना ही जीवन का एकमात्र ध्येय मानते हैं। किन्तु ऐसे लोगों की सचमुच कमी है जो हृदय से धर्म को धारण करते हैं तथा जिनकी आत्मा वास्तव में परमात्मा के चिन्तन में ही लगी रहती है। ब्रजवासी लाल जी ऐसे ही वास्तव में परमात्मा के दिव्य तथा महान लोक में विचरने वाले महापुरुष थे ।
लगभग अट्ठासी वर्ष की आयु में उनका देहान्त हुआ। उनकी मुखमुद्रा सदा शांत तथा सौम्य रहती थी । चेहरे पर धीमी मुस्कान हमेशा विद्यमान रहती थी । उनकी आवाज में गम्भीरता थी। सिर के सफेद बाल तथा बहुधा हल्की – हल्की सफेद दाढ़ी उनकी प्रौढ़ता को और भी बढ़ा देती थी । ब्रजवासी लाल जी गृहस्थ थे, किन्तु सन्त थे। वह साधु थे। वह इस लोक में रहते अवश्य थे किन्तु उनकी आन्तरिक चेतना उन्हें निश्चित ही अलौकिक आभा से जोड़े रहती थी । उनके मुख पर संयम और ईश्वर भक्ति का तेज व्यक्त रहता था।
मेरा सौभाग्य रहा कि मेरी पुस्तक मॉं (भाग 2) के लोकार्पण कार्यक्रम में अध्यक्षीय आसान को उन्होंने सुशोभित किया था।
वह सत्संग में नियमित भाग लेते थे और साधु-सन्यासियों की सेवा और उनके प्रवचन-श्रवण में विश्वास रखने वाले व्यक्ति थे । अग्रवाल धर्मशाला , रामपुर स्थित श्री राम सत्संग मंडल के वह संस्थापक थे। उनके संचालन में दैनिक सत्संग का अनूठा कार्यक्रम रामपुर में शुरू हुआ। बृजवासी लाल जी भाई साहब की सत्संग-निष्ठा से बड़ी संख्या में न केवल सत्संग के प्रति लोगों का ध्यान आकर्षित हुआ और उनकी रुचि बढ़ी अपितु यह भक्ति भावना से ओतप्रोत सनातन जीवन मूल्यों का एक अदभुत केंद्र भी बन गया।
धार्मिकता का आडम्बर ओढ़ने वाली इस दुनिया मे वह एक सच्चे और विरल कोटि के धार्मिक व्यक्ति थे । अन्त में उनकी स्मृति में श्रद्धॉंजलि स्वरूप निम्न पंक्तियां अर्पित हैं: —
कपड़े सफेद थे मगर मन गेरुआ रॅंगा
बाहर से दीखता रहा वह आम आदमी
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लेखक: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 9997615451
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नोट: यह श्रद्धांजलि लेख सहकारी युग हिंदी साप्ताहिक, रामपुर अंक 7 नवंबर 2005 में प्रकाशित हो चुका है।