गृहस्थ प्रबंधन!
पांच जनों का हो परिवार,
तो राशन कितना लगता है,
एक वक्त के भोजन का,
इतना तो प्रबंधन करना पड़ता है,
गेहूं चावल मंडवा झंगोरा,
आधे सेर का एक कटोरा!
दाल या सब्जी,
जो सहजता से सुलभ है,
उसी पर घर गृहस्थी,
की गुज़र बसर है,
साथ में यह भी सामाग्री चाहिए,
छौंक को तड़का,मेथी जखिया,
लहसुन प्याज,जीरा धनिया,
घी तेल जैसी भी हो व्यवस्था,
नमक मिर्च हल्दी मसाले,
स्वाद बढ़ाने को ये भी डालें!
यही दिनचर्या सुबह शाम है चलती,
तब जाकर पेट की भूख है टलती,
इतना कुछ पाने में कितना खर्च लगता है,
उसका हिसाब इस तरह से चलता है!
आटा चावल पर खर्च है चालीस रुपया,
दाल साग सब्जी पर भी तीस चालीस रुपया,
घी तेल मिर्च-मसाला,
बीस तीस रूपए इस पर भी डाला ,
जोड़ घटा कर देख भाल कर,
एक सौ का पत्ता तो खर्च कर ही डाला!
चाय सुबह की,
और नास्ता पानी,
चाय सांझ की,
एवं जुगार करने की रवानी,
इसमें भी कुछ खर्चा आता है,
दूध चाय, गुड़ या शक्कर,
बासी भोजन या फिर ,
बैकरी का लगता चक्कर!
इसमें भी चालीस-पचास लग जाते हैं,
एक दिन में डेढ़ सौ रुपए खर्च आते हैं,
हर दिन काम काज नहीं मिलता है,
हफ्ते में एक दो दिन नागा रहता है,
दुःख बिमारी का अलग झमेला है,
दवा दारू पर भी खर्च नहीं नया नवेला है!
बच्चों की शिक्षा दिक्षा की भी चिंता सताती है
स्वंय चाहे कुछ कमी रह जाएं पर उनकी मांग पूरी की जाती है,
बच्चों की आवश्यकता को पूरा करते हैं,
तो घर की आवश्यकताओं पर कटौती करते हैं,
फिर भी गुजर बसर नहीं कर पाते हैं,
जितना कमाते हैं,
उससे ज्यादा खर्च उठाते हैं,
झूठ बोल कर उधार कर आते हैं,
देते हुए नजर चुराते हैं,
एक आम इंसान की यह जिंदगानी है,
हर आम नागरिक की यही कहानी है!
काम धाम है तो उम्मीद बंधी रहती है,
घर पर बैठ कर तो जिंदगी दुभर रहती है,
कोई ना कोई झमेला उठ खड़ा होता है,
बात बे बात पर झगड़ा फिसाद होता है,
काम पर जाकर शरीर जरुर थकता है,
किन्तु मन मस्तिष्क दुरस्त रहता है!
काम पर जाना भी कुछ आसान काम नहीं है,
समय पर पहुंचने का आभास तमाम रहता है,
कभी कभी थोड़ी सी भी देरी वाहन छुड़ा देती है,
दूसरे वाहन के आने में देरी रहती है,
तब भागम भाग में रहना पड़ता है,
वाहन पर चढ़ने का जुनून सिर पर चढ़ा रहता है,
आस पास के लोगों से ताने बोली सुननी पड़ती है,
पर सवारी मिल गई है उसकी खुशी रहती है,
हां आने जाने का किराया तो चुकाना पड़ता है,
अपनी आमदनी में से ही यह भी घटता है!
यह व्यथा कथा हर बार सामने रहती है,
काम पर जाएं या फिर घर पर ही रहें,
झेलनी तो घर के मुखिया को ही पड़ती है,
घर गृहस्थी का संचालन,
कितना दुरुह होता है यह प्रबंधन,
आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया,
क़िस्सा है पुराना, नहीं है कोई नया!
एक आम इंसान की यह व्यथा कथा,
जान लीजिए साहेब जी ,
कुछ ऐसी व्यवस्था बना लीजिए,
मेरे साहेब जी,
जिसमें हर एक इंसान की सुनिश्चित आय अर्जित हो,
उस पर दिन रात खपने की चिंता ना निर्धारित हो,
वह भी आराम से सप्ताह में एक दिन गुजार सके,
बिना इस भय के की आज की आमदनी का क्या हो,
वह भी अन्य इंसानों की तरह अपने को सुरक्षित महसूस करे,
उसे भी यह अहसास हो कि वह भी इस देश का नागरिक है,
ठीक उसी तरह जैसे, उसके आस पड़ोस के लोग रहते हैं,
उसे भी देश के संसाधनों का हकदार मानिए,
उसके लिए भी एक अदद आय का साधन जुटाइए,
वह आपसे आपकी सत्ता की भागीदारी नहीं मांगता है,
वह आपसे आपके द्वारा अर्जित सुख सुविधाएं नहीं चाहता है,
नहीं है चाह उसको ठाठ-बाट की,
नहीं है मोह उसको राज पाट की,
वह तो थोड़ी सी इंसानियत की चाह रखता है,
वह कहां किसी के सुख में व्यवधान करता है,
कहां वह आपसे सत्ता का हिसाब किताब मांगता है,
वह तो दो जून की रोजी-रोटी का थोड़ा सा काम मांगता है!
वह तो अपनी ही छोटी सी दुनिया में मस्त रह सकता है,
उसे नहीं किसी के नाज नखरों की परवाह है,
उसे शिकवा है तो बस इतना ही,
उसे नक्कारा ना समझा जाए,
उसके हाथ में भी काम हो,
उसे मुफ्त का राशन कहां गवारा है,
लेकिन बना रहे हैं आप ही हमें परजीवी,
हाथ को काम दे रहे हो नहीं,
तब भुख की आग मिटाने को ,
फैला रहा हूं मैं अपने हाथ को,
वर्ना मुझे भी नहीं है गवारा,
यूं ही चिल्ला कर कुछ कहने को,
माना कि अपनी भाग्य रेखा में,
सुख नहीं लिखा होगा,
पर घुटन भरा हुआ जीवन तो,
तुम्हें भी दिख रहा होगा,
बना रहे सुख साधन तुम्हारा,
कर दो मेरे साहेब, जी!
कुछ कष्ट भी कम हमारा,
हमारी घर गृहस्थी का,
इतना तो प्रबंधन कर दो जी,
हमें भी अपने निगाहों के दायरे में रख लो जी!!