गृहस्थ जीवन सरलार्थ
हाथ में लिए हुए तलवार
हो करके घोड़ी पर सवार
बारातियों की सैना साथ
ढोल, नगाड़ों,बाजों साथ
रीति रिवाज क्रियान्वयन
दुल्हा जाए दुल्हन आंगन
संग बैंड,बाजा और बारात
लेने फेरे उसके संग सात
लगने लगता तब जब ऐसे
करने गया है शिकार जैसे
सब उल्टा तब हो है जाता
दुल्हा ही शिकार हो जाता
जब सब कुछ है लुट जाता
बुद्धू लौटके घर को आता
दुल्हन उस दिन है शर्माती
वाणी मुख से नहीं है आती
लगती ऐसे जैसे हो अबोध
जैसे नहीं किसी का बोध
अकेली नहीं है चल पाती
सहेलियाँ सहायतार्थ आती
दुल्हा होता उस दिन खुश
दुल्हन रोने से नही हो चुप
लेकिन यह सब है दिखावा
जब दिखाती वह निज रंग
वहम हो जाता सबका भंग
अकेली वह है लाख समान
खुलने नहीं देती है जुबान
सारी शर्मा दूर चली जाती
तीखी वाणी मुख छा जाती
अबोध खोलती पूरी सुबोध
बिल्कुल भी नहीं वो अबोध
वह अकेली बहुत ही भारी
आने ना दे किसी की वारी
आरी सी जुबान है चलती
तब किसी की नहीं चलती
वो बैंड ,बाजा और बारात
विदाई संग ही थे बस साथ
विदाई समय जितनी रोई
पश्चाताप नहीं तनिक कोई
अब वो बिल्कुल ही है खुश
दुल्हा बिल्कुल अब है फुस
उसके सब रंग हैं चरितार्थ
दुल्हा मांगता अब परमार्थ
शायद यही जीवन की भूल
जब रिश्ता किया था कबूल
यह गृहस्थ जीवन सरलार्थ
यह गृहस्थ जीवन सरलार्थ
सुखविंद्र सिंह मनसीरत