गृहणी की व्यथा
गीत :- गृहणी की व्यथा
चौका-चूल्हे में बिता दी जिंदगानी कदर न पहचानी।
जैसे मौजों के बीच रवानी, जीवन है बहता पानी।
झाड़ू ,पोछा, बर्तन ,कपड़ा, रोटी को समझा नसीब।
सबका दिल जीता, मैं हारी, बनी मैं सबकी नीव ।।
दोनों कुल का मान बढ़ाया, कल तक थी सबसे अनजानी।
चौका-चूल्हे में——
दहेज के लालच में बहुओं को जिंदा आज जलाएं।
भ्रूण हत्या से बच जाए तो ,हवस से लाज बचाएं।।
अब तुरत करेंगे संहार ,ना होने देंगे मनमानी ।
चौका-चूल्हे में——
अपने काम ,हुनर से दुनिया में हम जाने जाते।
पिता ,पति ,बच्चों के नाम से ना पहचाने जाते।।
बनूँ महादेवी,मदर टेरेसा और झांसी वाली मर्दानी।
चौका-चूल्हे में ——
यहीं रखा रह जाए सोना ,चांदी, रुपया- पैसा।
दो दिन को सब याद करें ,फिर होगा जैसा -तैसा।।
कुछ छोडूंगी अमिट निशानी, अभी से मन में ठानी।
चौका-चूल्हे में ——
श्रीमती ज्योति श्रीवास्तव
सहायक अध्यापक
शासकीय प्राथमिक शाला खिरैंटी
साईंखेड़ा
नरसिंहपुर