गृहणी का बुद्ध
कभी खिड़कियों से झाँकती बुद्ध को,
कभी घर की दीवारों से सुनती बुद्ध को,
और किसी कोने में सजी बुद्ध को,
तरतीब करती और उसपे चढ़ी धूल को
पोछती उसी के.बुद्धत्व से अन्जान,
कभी किसी ने सिखाया ही नहीं कि
बुद्धत्व भी उसके अपने घर
जैसा अपना है,
उसकी गोल गोल रोटियों में
रमा हुआ मन,
कभी शून्यता में भी रम सकता…
कभी किसी ने रोटियों के स्वाद में रमें
उसकी संवेदना के स्वाद को
चखा ही नहीं,
शायद जो भरा मन खाली हो पाता,
चादर पे पड़ी
कई सिलवटों को ठीक करती,
असंख्य स्मृतियों में उलझे
कई अधूरे पलों को
सहेज पुनः पुनः सँवारती,
कब समझ पाती
अपने भीतर मौजूद बुद्ध को,
वो सारा संसार जो उसके
बाहर अस पास जीवंत है
उसी को अपने भीतर का
संसार समझ बैठती
उसका बुद्धत्व उसी में खोया हुआ है
आसपास के अपनों के संतुष्ट आँखो में
ही बुद्धत्व को देखती…और
अपनी ही तलाश भूल जाती……….
पूनम समर्थ(आगाज ए दिल)