गूंज
कुछ अल्फाजों में सिमट गयी हूँ,
कभी सोच की सांकल जकड़ती है
तो कभी सदियों से चली आ रही परंपरा ,
कहाँ हूँ मैं ? कौन हूँ मैं ? मेरा क्या है ?
अपना …….?
जहाँ जन्म लिया वो घर पराया,
नाम की पहचान भी सिंदूर से बदल गयी ,
लाल रंग ने बीस से पच्चीस साल का संग,
पल में नैहर कह.. पराया कर दिया ,
मेरा अपना क्या ?
नौ महीने कोख में रखा जिसे ,
वो भी मेरे नाम से न जाना गया ,
बेटी थी, चुप रहो ,
पत्नी हो ,खामोश रहो ,
बहू हो, बहू की तरह रहो ,
लड़की हो, काँच सी हो,
दरक गया तो जिंदगी भर का कलंक ,
कौन हूँ मैं ? क्या है अपना ?
ज्ञान स्वरूप सरस्वती हूँ,
धन का भंडार लक्ष्मी हूँ,
दुर्गा हूँ, लक्ष्मी हूँ , चंडी हूँ ,
किन्तु ,पर ????
जो मातृत्व का वरदान था,
वो अभिशाप बन रहा ,
चंद क्रूर मानसिकता के कारण..
मैं कहती हूँ छोड़ दो ये रोना,
अब सोचो !
घर छोड़ा हमने ,नाम छोड़ा हमने,माँ बने हम
नया आशियाँ बनाया हमनें,
घुमाओ दिमाग के घंटों को,
खुद से करो ये सवाल ,
क्या हो तुम ?
तुम वो हो,
जो तरक्की के नए परचम लहराओगी ,
नए पंख से नया आसमां रचोगी ,
अपनी सोच की कूँची से एक नया भारत गढ़ोगी,
जरूरत है तो अपने अंदर के तूफान के अनुगूँज की ।
एक गूंज
डा.जिज्ञासा सिंह