गुज़र गई है बहुत
गुज़र गई है बहुत और बची है थोड़ी सी
निकलती जान भी नहीं मगर निगोड़ी सी।
महफिलों में छलके जाम पर न ये था पता
ज़िन्दगी इतनी बची ज्यों शराब थोड़ी सी।
पी लूँ मय को जरा कायनात भी तक लूँ
अलविदा कहने की हिम्मत नहीं बटोरी थी।
सपुर्दे खाक हुए, कोई रहनुमा न मिला
ज़िन्दगी बन गई है राख की कटोरी सी।
विपिन