गुहार
शीर्षक – “गुहार”
(गुहार एक हर प्रताड़ित नारी की कहानी है। जो कभी घर में कभी घर से बाहर प्रताड़ित होती हैं। और चाहकर भी अपने लिए कदम नहीं उठा पातीं)
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जन्म दिया मार दिया, कभी कोख मे मार दिया, कभी दफना दिया ,हुआ नहीं अंत अभी
गंदी निगाहों से देखा ,पावन रिश्तों को कलंकित किया, घर में ही शोषण किया
भोर हुई संत बना ,रक्षक ही भक्षक बना, जिसको देवी रूपों में पूजा ,उसका ही मान मर्दन किया
छोटी हो या बड़ी हो अपनी या पराई हो, सबको देखा हवस भरी निगाहों से देखा
पापी का पाप रुका नहीं मार दिया दफना दिया
हर पुरुष समाज को शर्मसार किया, नज़रों से गिरा गिराया सबको
पुरुष समाज पर कलंक लगाया, उस हवसी उस दोषी का दोष
निर्दोष पुरूष भी लज्जित हुआ, किया नहीं जो जुर्म उसने
कलंकित हुआ समाज, हे वीरों, हे नर नारियों, तुम जागो दोषी को पहचानो
बेटी को खंजर दो, इज्ज़त बचा सकें ख़ुद ही ख़ुद की, ऐसा प्रशिक्षण दो
अंधकार में मोमबत्ती नहीं, मशाल जलाओ हर नारी को झांसी की रानी बनाओ
अस्त्र शस्त्र से श्रृंगार करो, नारी का सम्मान करो, नारी हो पुरुष की तरह तुम भी मर्यादा में रहना
भूल हुई मत दोहराओ, नारी को नारी की परिभाषा बतलाओ
काली अवतारिणी है वही दुर्गा वही काली है ,शक्ति उसकी उसे याद दिलाओ
हे वीरों कब तक होते दोगे कलंकित ख़ुद को कलंकित समाज को
जो गुनाह किया एक ने सज़ा क्यों मिले सब को, कब तक सहेंगे आख़िर
उठाओ खंजर उठाओ तीर तलवार ,दे दो माताओं बहनों को ये उपहार…
क्योंकि नारी से है तुम्हारी पहचान, नारी है तो मुमकिन है ये जहान
मैं ये नहीं कहती कि अस्त्र शस्त्र लटकाएं घूमती फिरें, जो शस्त्र न कर सकें वो काम कलम ही करती है
एक शिक्षित प्रशिक्षित नारी ही ला सकती है परिवर्तन, संस्कारों में रहकर ही, संस्कार वो जन जन में भर सकती हैं
स्वरचित रचना – सोनम पुनीत दुबे